वर्तमान में शेरघाटी की पहचान केवल एक पिछड़ा हुआ इलाका बन कर रह गया है। लेकिन विदेशों में शेरघाटी का पहचान मंगल ग्रह से गिरे उल्कापिंड से है। मंगल ग्रह से शेरघाटी में एक उल्कापिंड गिरा था, जिसे अभी भी लंदन के संग्रहालय में संरक्षित रखा गया है। 25 अगस्त 1865 में यह गिरा था, इसका जैसे ही पता चला था ब्रिटिश प्रशासन ने प्रत्यक्ष दर्षियों से इसे प्राप्त कर लिया गया था।
जिसे अंग्रेजो ने इसे यहाँ से ब्रिटेन भेज दिया गया था। अंग्रेजों ने शेरगोट्टी उल्कापिंड ( Shergotty meteorite ) का नाम दिया था। जिसे आज हमलोग शेरघाटी उल्कापिंड के नाम से भी जाना जाता है। शेरगोट्टी उल्कापिंड, शेरगोटाइट मंगल उल्कापिंड परिवार का पहला उदाहरण है।
रॉयल डिस्ट्रिक्ट गजेटियर के अनुसार इसका वजन लगभग पांच किलो या (11 पाउंड) का मार्टीन उल्कापात था ।
क्या होता है, उल्कापिंड
आकाश में कभी-कभी एक ओर से दूसरी ओर अत्यंत वेग से जाते हुए अथवा पृथ्वी पर गिरते हुए जो पिंड दिखाई देते हैं उन्हें उल्का (meteor) और साधारण बोलचाल में ‘टूटते हुए तारे’ अथवा ‘लूका’ कहते हैं। उल्काओं का जो अंश वायुमंडल में जलने से बचकर पृथ्वी तक पहुँचता है उसे उल्कापिंड (meteorite) कहते हैं।
ये भी पढ़े
Geographical Indications For Maghi Paan
कोंच का श्री कोचेश्वर महादेव मंदिर जो है राष्ट्रीय धरोहर
यह ज्यादातर पाइरॉक्सिन से बना हुआ है
रोडोमेट्रिक डेटिंग इंगित करता है कि यह लगभग 4.1 बिलियन साल पहले एक ज्वालामुखीय मैग्मा का जमा हुआ भाग है। यह उल्का मंगल ग्रह का भाग है। यह ज्यादातर पाइरॉक्सिन से बना हुआ है। इस प्राप्त उल्कापिंड के बारे में माना जाता है कि यह कई शताब्दियों के प्रीटरेस्ट्रियल जलीय परिवर्तन से गुजरा है। इसके भीतर कुछ विशेषताएं बायोफिल्म और उनके संबद्ध माइक्रोबियल समुदायों के अवशेष होने की ओर इंगित करता हैं।
शेरगोटी कुछ समय के लिए एकमात्र बेसाल्टिक मार्टियन उल्कापिंड था और जल्द ही मार्टियन की बढ़ती संख्या के लिए प्रोटोटाइप बन गया। यह और अन्य मंगल ग्रह के उल्कापिंडों ने मंगल ग्रह पर पानी की उपस्थिति के लिए पर्याप्त सबूत प्रदान किए हैं।
क्या है वैज्ञानिक महत्व…
– रेडियोमेट्रिक तिथि के अनुसार इसे लगभग 4.1 अरब साल पुराना माना गया है।
– लोगों को इसकी जानकारी नहीं रहने से लंदन से लाने की पहल नहीं हो रही है।
कौड्रयूल है पिंड
– इसपर वैज्ञानिकों ने शोध भी किए। इसे कौंड्राइट पिंड माना गया है, जिसका मुख्य लक्षण है, कुछ विशिष्ट वृत्ताकार दाने, जिन्हें कौंड्रयूल कहते हैं।
– यह सिलिकेट खनिज से बने पत्थर सदृश है। इसे ज्वालामुखी के लावे से बना माना जाता है। नासा के जर्नल में भी इसपर शोध प्रकाशित है। इसके अलावा अन्य जगहों पर भी चर्चा है।
और क्या है महत्व
– वैज्ञानिकदृष्टि से इनका महत्व बहुत अधिक है क्योंकि एक तो ये अति दुर्लभ होते हैं, दूसरे आकाश में विचरते हुए विभिन्न ग्रहों इत्यादि के संगठन और संरचना, के ज्ञान के प्रत्यक्ष स्रोत केवल ये ही पिंड हैं।
– इनके अध्ययन से हमें यह भी बोध होता है कि भूमंडलीय वातावरण में आकाश से आए हुए पदार्थ पर क्या-क्या प्रतिक्रियाएं होती हैं। इस प्रकार ये पिंड ब्रह्माण्डविद्या और भूविज्ञान के बीच संपर्क स्थापित करते हैं।
भारत में गिरे अन्य उल्कापिंड
भारतीय आश्मिक उल्का इलाहाबाद जिले के मेडुआ स्थान से प्राप्त हुई थी (द्र. चित्रफलक)। वह 30 अगस्त 1920 को प्रात: 11 बजकर 15 मिनट पर गिरी था। उसका भार प्राय: 56,657 ग्राम है। दूसरा स्थान उस पिंड का है जो मलाबार में कुट्टीपुरम ग्राम में 6 अप्रैल 1914 को गिरा था। इसका भार 38,437 ग्राम है।
ऐसे ही और informational Posts पढ़ते रहने के लिए और नए blog posts के बारे में Notifications प्राप्त करने के लिए हमारे website Notification Ko Allow कीजिये. इस blog पोस्ट से सम्बंधित किसी भी तरह का प्रश्न पूछने के लिए नीचे comment कीजिये.
हमारे पोस्ट के प्रति अपनी प्रसन्नता और उत्त्सुकता को दर्शाने के लिए कृपया इस पोस्ट को Social Networks जैसे कि Facebook, Google+ और Twitter इत्यादि पर share कीजिये.
This excellent website definitely has all the information I needed about this subject and
didn’t know who to ask.
Hi friends, its wonderful piece of writing about tutoringand fully defined, keep it up
all the time.